भागवत कथा हमें जन्म मरण से मुक्ति दिलाता है- शंकराचार्य स्वामीनारायणानन्द तीर्थ

बृज बिहारी दुबे
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वाराणसी। असि स्थित श्री काशीधर्मपीठ, रामेश्वर मठ में चल रहे श्रीमद्भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह के दूसरे दिन सोमवार को अनंतश्री विभूषित श्री काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराज ने श्रीमद् भागवत कथा का वर्णन करते हुए कहा कि श्रीमद् भागवत की कथा हमें जन्म मरण के बंधन से मुक्ति दिलाता है। कथा का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रह्मा जी के पुत्र कर्दम थे। जिन्होंने अपने तपस्या के द्वारा भगवान को कपिल के रूप में प्राप्त किया। माता देवहूति कर्दम की धर्मपत्नी हैं, मनु-सतरूपा की पुत्री हैं। जहाँ संयम होता है, जहाँ त्याग होता है जहाँ ब्रह्मचर्य होता है जहाँ ईश्वर की उपासना होती है वहाँ ईश्वर पुत्र के रूप में प्रकट होता है। जिसके जीवन में भगवान की उपासना होती है, उसे भोग, ऐश्वर्य और अंत में भगवान की भी होती है, सब कुछ प्राप्त होता है। माता पिता के तपस्या से श्रेष्ठ संतानों की प्राप्ति होती है। वही धर्म परायण होते हैं, धर्म रक्षक होते हैं। भगवान कपिल जी ने माता देवहूति को ज्ञान दिया। ज्ञान दिया कि धन, बंधु, भोग में आसक्त हुआ मन बंधन का हेतु होता है ईश्वर में लगा मन मुक्ति का कारण है। माता देवहूति ने कहा मुझे संसार से वैराग्य हो गया है, इंद्रियों को भोग देते हुए थक गई हूँ। इसलिए त्याग पूर्वक जीवन व्यतीत करना, हृदय में परमात्मा की अनुभूति सनातन धर्म की विधि परम्परा है। वर्णाश्रम धर्म के ज्ञाता थे कर्दम ऋषि। घर में कपिल भगवान के आगमन के बाद सन्यास ग्रहण कर लिया। कर्दम जी सन्यास धारण करके जंगल जाने को तैयार हुए हैं कपिल ने कहा अपना मन मुझमें लगाकर के मुक्त हो जाओ। जब भगवान हृदय में आते हैं तो वह सामने भी प्रकट हो जाते हैं। मन ही बंधन का कारण है मन ही मुक्ति का कारण है। कपिल ने सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया। फिर श्रीमद्भागवत में ये बताया गया है कि भगवान का आश्रय लेकर के धर्म करोगे तो धर्म सफल होगा। ऋषि अत्रि माता अनुसुइया ने भगवान का आश्रय लेकर धर्म किया तो उनके घर में भगवान दत्तात्रेय आ गए। दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव का अपमान करके बहुत बड़ा यज्ञ किया लेकिन सफल नहीं हुआ। धर्म का आश्रय ईश्वर है, जीवन में ईश्वर का उपेक्षा कर सफलता प्राप्त नहीं हो सकता है। माता देवहुति धर्म का आश्रय नहीं छोड़ती, दैवी संपदा के प्रतीक हैं माता देवहूति। आदर्श नारियों के ही आदर्श बच्चे होते हैं। धर्म में दृष्टिकोण होना चाहिए कि किसी को हानि नहीं पहुचायेंगे, किसी को धोखा नहीं देंगे तभी धर्म का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। माता सुनीति और सुरुचि ये दोनों उत्तानपाद की पत्नियां हैं, संसार के जीव उत्तानपाद की तरह है। जीव एक समय पर सुनीति से प्रेम करेगा या सुरुचि से ही। सुनीति का फल ध्रुव है। ध्रुव ने भगवान का आश्रय लिया उत्तम ने आश्रय नहीं लिया। धन्य हैं सुनीति जैसी मां जिन्होंने भगवान का आश्रय लेकर के ध्रुव जैसा पुत्र पैदा किया। सुरुचि के पुत्र उत्तम को जीवन में कोई सफलता नहीं मिली और सुनीति के पुत्र ध्रुव को भगवान के आश्रय से तपस्या से संयम से आराधना से नित्य लोक की प्राप्ति हो गई। ध्रुव भागवत है, माता देवहूति भागवत हैं अत्री अनुसुइया भागवत हैं। आज समाज में श्रेष्ठ पुत्र पैदा करने की आवश्यकता है। माता-पिता को संयम पूर्वक रहना चाहिए, जिसके फलस्वरूप उत्तम संतान की प्राप्ति हो सके। 

कार्यक्रम के पूर्व काशीधर्मपीठ परपंरा अनुसार पादुका पूजन किया गया।

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