लखनऊ,उत्तर प्रदेश की राजधानी, एक बार फिर पत्रकार सुरक्षा और कानून व्यवस्था के गंभीर प्रश्न के साथ सुर्खियों में है। सुदर्शन न्यूज़ के पत्रकार सुशील अवस्थी 'राजन' को कथित तौर पर घर से बुलाकर गाड़ी में बैठाया गया और फिर बुरी तरह पीट-पीटकर मरणासन्न कर दिया गया। वे इस समय अस्पताल में जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
*पत्रकार उत्पीड़न चरम पर: एके बिंदुसार की अपील*
इस भयावह घटना ने प्रदेश की कानून व्यवस्था पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है। भारतीय मीडिया फाउंडेशन नेशनल कोर कमेटी के संस्थापक एके बिंदुसार ने इस पर गहरा रोष व्यक्त किया है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि:
> "उत्तर प्रदेश सरकार एवं मुख्यमंत्री महोदय के लाख फरमान के बावजूद भी उत्तर प्रदेश में पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न चरम सीमा पर है।"
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बिंदुसार ने सभी मीडिया संगठनों, पत्रकार बंधुओं, और सामाजिक कार्यकर्ताओं से एकजुट होकर आवाज बुलंद करने की भावुक अपील की है, ताकि इस तरह की घटनाओं पर रोक लगाई जा सके।
*लेखन से जुड़ा है हमले का तार?*
जानकारी के अनुसार, सुशील अवस्थी लगातार एक बड़े नेता और उनके बेटे के बारे में खोजी लेखन कर रहे थे। ऐसे में, यह आशंका गहरी हो जाती है कि इस क्रूर हमले का सीधा संबंध उनके साहसी पत्रकारिता से हो सकता है।
पुलिस को इस दिशा में निष्पक्ष और त्वरित जांच करनी चाहिए, ताकि हमले के पीछे का सत्य और मास्टरमाइंड सबके सामने आ सके।
अपने को बड़े पत्रकार कहने वाले बड़े पत्रकार संगठनों की चुप्पी
घटना की गंभीरता और राजधानी में सरेआम हुई इस गुंडागर्दी के बावजूद, कई स्वनामधन्य बड़े पत्रकार संगठनों की ओर से कोई ठोस आवाज़ न उठना और उनका 'कोमा' में रहना और भी बड़ा सत्य है। यह चुप्पी न केवल पीड़ित पत्रकार के साथ अन्याय है, बल्कि स्वतंत्र पत्रकारिता के भविष्य के लिए भी एक खतरनाक संकेत है।
*सत्ता समर्थक पत्रकार का शिकार: एक कड़वा विरोधाभास
यह घटना इसलिए भी अधिक चौंकाने वाली है क्योंकि सुदर्शन न्यूज़ को अक्सर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समर्थन में दिन-रात ज़मीन-आसमान एक करते हुए देखा जाता है। जब सत्ता का खुलकर समर्थन करने वाले एक पत्रकार को भी प्रदेश की राजधानी में सरेआम गुंडागर्दी का शिकार होना पड़े, तो यह दर्शाता है कि कानून की अंधेरगर्दी किस हद तक व्याप्त हो चुकी है। यह एक कड़वा विरोधाभास है जो सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों को सोचने पर मजबूर करता है।
ऐसे दौर में, जब हर कोई अपने हितों के लिए चुप्पी साध लेता है, तो आवाज़ उठाना बेहद ज़रूरी हो जाता है, भले ही उस आवाज़ का तत्काल कोई असर हो या न हो।
जर्मनी में हिटलर के नाज़ी शासन का विरोध करने वाले धर्मगुरु मार्टिन निमोलर (Martin Niemöller) की अमर कविता आज के दौर का सत्य बनकर सामने आती है:
> "पहले वे आये कम्युनिस्टों के लिए
> और मैं कुछ नहीं बोला
> क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
> फिर वे आये ट्रेड यूनियन वालों के लिए
> और मैं कुछ नहीं बोला
> क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
> फिर वे आये यहूदियों के लिए
> और मैं कुछ नहीं बोला
> क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
> फिर वे मेरे लिए आये
> और तब तक कोई नहीं बचा था
> जो मेरे लिए बोलता।"
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सुशील अवस्थी पर हुआ हमला किसी एक पत्रकार पर हमला नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष जांच के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत पर एक चेतावनी है। यदि आज पत्रकारिता जगत एकजुट नहीं हुआ, तो कल शायद बोलने वाला कोई नहीं बचेगा।
