(रिपोर्ट - भोला ठाकुर )
CSDS जैसे संस्थान अकादमिक शोध की आड़ में जाति-धर्म आधारित नैरेटिव गढ़कर लोकतंत्र में अविश्वास बोते हैं, और फिर अल्टरनेटिव पॉलिटिक्स के जरिए अव्यवस्था पैदा करने का प्रयास करते हैं। “वोट चोरी” इसका ताज़ा उदाहरण है। इन छिपे दांव-पेंचों को उजागर कर नागरिकों के विश्वास और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना ही इस लेख का उद्देश्य है।
पिछले महीने-डेढ़ महीने से यह वाक्य राजनीति की गलियों से लेकर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया तक बार-बार सुनाई दे रहा है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहाँ हर चुनाव एक उत्सव की तरह मनाया जाता है, वहाँ अचानक यह अविश्वास क्यों? यह सवाल हर उस नागरिक के मन में उठ रहा है, जो वोट डालकर गर्व महसूस करता है, जो वोट डालकर अपनी सेल्फी पोस्ट करता है, "मैंने अपना सबसे बड़ा कर्त्त्वय निभा दिया, अब आपकी बारी।"
ऐसे में जब कोई इस वोट चोरी की बात की परतें खोलकर देखता है, तो पाता है कि इस अविश्वास की जड़ सीधे किसी पार्टी के बयान से नहीं, बल्कि तथाकथित शोध की दुनिया से जुड़ी है। दिल्ली में बरसों से कथित रिसर्च कर रहा एक संस्थान, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (CSDS), इस पूरी बहस के बीचोंबीच खड़ा है। यही वह जगह है जहाँ से न केवल Vote Chori बल्कि इसके जैसी विभिन्न थ्योरीज़ दशकों से अकादमिक भाषा में गढ़ी जाती रही हैं। राजनीति और सोशल मीडिया के जरिए आम जनता तक तो यह अब जाकर पहुँच रही है।
वैसे यदि CSDS पर ही गौर करें, तो दक्षिणी एशियाई देशों के सामाजिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक अध्ययन के कथित उद्देश्य से काम करते हुए यह संस्थान दशकों से चुनावी सर्वे करता आ रहा है। इन सर्वेक्षणों को मीडिया आँख मूँदकर छापता है और नेता अपने भाषणों में हवाला देते हैं। लेकिन जब इन रिपोर्टों को ध्यान से पढ़ते हैं तो एक पैटर्न साफ़ दिखता है कि CSDS की इन रिपोर्ट्स में हर बार समाज को टुकड़ों में बांटकर ही पेश किया जाता है। अक्सर मीडिया में होने वाले चुनावी विश्लेषण में कुछ बड़े सामान्य से लगने वाले विषय होते हैं कि किस जाति ने किसे वोट दिया? किस रिलीजियस वर्ग का झुकाव किस ओर रहा? कौन-सा वर्ग किससे नाराज़ हुआ? भले ही यह विश्लेषण दिखने में व्यावहारिक लग सकता है, लेकिन इस बीच एक प्रश्न सदा से उपेक्षित रहा कि चुनावी विश्लेषणों की मुख्यधारा में जाति-रिलीजन के प्रश्न केन्द्र में कैसे आ गए, जबकि स्वतन्त्रता के बाद हमने जिन संवैधानिक मूल्यों को अंगीकार किया था, वे इसकी अनुमति भी नहीं देते!
इसका उत्तर है CSDS जैसे विभिन्न शोध संस्थान जिन्होंने सामाजिक अध्ययन के नाम पर समाज में दरारें पैदा करने के लिए राजनीति और राजनीतिक विश्लेषणों को अपना हथियार बनाया। इनकी रिपोर्ट्स को सनसनी बनाने की होड़ में लगे मीडिया घरानों ने बिना किसी विचार के लगातार मसालों के साथ परोसा। परिणाम स्वरूप विश्लेषण का यही पैटर्न धीरे-धीरे जनता के मन में बैठा दिया गया। मतदाता को लगने लगा कि राजनीतिक सिस्टम सड़ चुका है। फिर एकाएक सवर्ण-दलित या उँची-नीची जात के नाम पर जब राजनीतिक मोबिलाइजेशन आरम्भ हुआ, तो मतदाता को प्रतीत हुआ कि उसकी व्यक्तिगत राय का अब कोई मतलब नहीं। सब पहले से तय है। कथित उच्च जातियों ने पहले ही परिणाम लिख दिए हैं। फिर ऐसे माहौल में कोई एक नेता “Vote Chori” का नारा लगाता है तो जनता को विश्वास करने में देर नहीं लगती, क्योंकि अविश्वास की नींव पहले ही डाल दी गई होती है। यद्यपि हम सौभाग्यशाली हैं कि इसे भारत में वैसा समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है।
खैर रिसर्च संस्थान इस तरीके का पॉलिटिकल एक्टिविज़्म भला क्यों करने लगे? तो यहाँ पर माओवादी दस्तावेज़ Urban Perspective को याद करना ज़रूरी है। उसमें साफ़ लिखा है कि शहरी क्षेत्रों में वैचारिक लड़ाई लड़ने के लिए “लीगल डेमोक्रेटिक ऑर्गेनाइजेशन्स” और शोध संस्थानों का सहारा लिया जाए, जिनका काम यह होगा कि समाज की मौजूदा दरारों को उभारा जाए और हर समस्या को “जनता बनाम राज्य” के फ्रेम में दिखाया जाए। CSDS की रिपोर्टें पढ़ते समय यही रणनीति झलकती है। अंतर सिर्फ इतना है कि एक फ्रण्टल माओवादी की भाषा क्रांतिकारी होती है और इन रिसर्च संस्थानों की भाषा अकादमिक। लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है - सिस्टम पर से लोगों के भरोसे को कमजोर करना।
CSDS का इतिहास भी इसी दिशा की ओर इशारा करता है। इसकी स्थापना 1960 के दशक में हुई थी। शुरुआत से ही इसके शोध का झुकाव वामपंथी विचारों की ओर रहा। समय-समय पर इसे विदेशी फाउंडेशनों और विश्वविद्यालयों से भी सहयोग मिलता रहा। सवाल यह है कि जब दिशा और धन दोनों बाहर से आएँगे तो क्या शोध भारतीय समाज की वास्तविकताओं को मजबूत करेगा या फिर बाहर से थोपे गए एजेंडे को आगे बढ़ाएगा?
भारत के लोकतंत्र की असली ताकत उसका आम मतदाता है। गाँव का किसान, शहर का मजदूर, नौकरीपेशा युवा; सभी चुनाव के दिन कतार में खड़े होकर यह संदेश देते हैं कि उनकी आवाज़ मायने रखती है। यही भरोसा लोकतंत्र को जिंदा रखता है। लेकिन जब किसी संस्थान की रिपोर्ट यह कहने लगे कि आपका वोट तो गिनती में है ही नहीं, या पहले से तय है कि कौन जीतेगा, तब असली चोट जनता के विश्वास पर पड़ती है।
अब सवाल यह है कि अगर कोई संस्थान सचमुच समाज को समझने के लिए काम करता तो वह क्या दिखाता? वह यह बताता कि किस तरह अलग-अलग समुदाय हर चुनाव में मिलकर लोकतंत्र को मजबूत करते हैं। वह यह उजागर करता कि करोड़ों लोग बिना किसी डर या दबाव के वोट डालने क्यों निकलते हैं। लेकिन ऐसे सवाल शायद ही कभी उठाए जाते हैं। इनकी जगह यही सवाल हमें उठते दिखते हैं कि किस जाति ने किसको नकारा? किस वर्ग ने किसका साथ छोड़ा? जबकि यह खेल अंततः लोकतंत्र को जोड़ने के बजाय तोड़ता है। यही वे चाहते भी हैं।
पर ऐसा नहीं है कि वे जोड़ने की बात नहीं करते। करते हैं। लेकिन वह ऐसे प्रश्नों को उठाकर किया जाता है कि दलित समूह इस्लाम के नेतृत्व में फासीवादी हिन्दुत्व से कैसे निपटेगा? या पिछड़े बहुसंख्यकों के वोट मिलकर कैसे मनुवादी सत्ता को उखाड़ फेंकेंगे, इत्यादि। और इसी शिगूफें में एक नया राग अलापा गया वोट चोरी का।
सोशल मीडिया इस खेल का सबसे आसान औज़ार बना। इसे सच बनाने के लिए कई वीडियो, कई रील, कई पोस्टर मैनिप्युलेटेड डेटा छान-छानकर परोस रहे हैं। फिर नेता इन्हीं का हवाला देकर जनता से कहते हैं, “देखिए, Vote Chori हो रही है।” और आम नागरिक, जिसने न रिपोर्ट पढ़ी होती है और न उसकी पद्धति समझी होती है, वह केवल वही सुनता है जो बार-बार दोहराया जाता है।
झूठे नैरेटिव गढ़ने वाले जानते हैं कि लोकतंत्र की बुनियाद विश्वास है। वे जानते हैं कि अगर यह भरोसा टूट गया तो उसके दम पर लोगों को सड़क पर उतारकर उन्हें सत्ता को उखाड़ने में उपयोग में लाना है। और यह भरोसा तब टूटता है, जब शोध की आड़ में राजनीति खेली जाती है, जो काम CSDS जैसे संस्थान पिछले 4-5 दशकों से अल्टरनेटिव पॉलिटिक्स के नाम पर बार-बार कर रहे हैं।
पर इसका समाधान क्या है? वही जो झूठ का समाधान है। यानी सच्चाई को सामने लाना। इसीलिए यह जरूरी है कि हम पहचान सकें कि किस तरह अकादमिक दिखने वाला शोध भी दरअसल राजनीति का औज़ार हो सकता है। CSDS इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। Vote Chori नैरेटिव इसकी ताज़ा उपज है।
लोकतंत्र को बचाने का मतलब केवल वोट डालना नहीं है, बल्कि उस भरोसे को बचाए रखना है जिसे कुछ लोग आंकड़ों और रिपोर्टों की आड़ में खोखला कर देना चाहते हैं। वोट डालकर सेल्फी पोस्ट करने से हमारा एक कर्त्तव्य जरूर पूरा होता है, पर इससे हमारी इतिकर्त्तव्यता नहीं हो जाती। लोगों में संस्थाओं के प्रति विश्वास को झूठ की लपटों से बचाना भी हमारा उतना ही बड़ा कर्त्तव्य है।
