मिर्जापुर की शांत धरती अब सियासी तूफान का केंद्र बनने को तैयार है। भारतीय मीडिया फाउंडेशन (नेशनल) के बैनर तले आगामी सितंबर माह में होने वाला पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं का महासम्मेलन सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि यूपी की राजनीति को हिला देने वाली एक ललकार है। फाउंडेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित बालकृष्ण तिवारी की इस घोषणा ने सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दी है।
यह महासम्मेलन पत्रकारों के दमन, भ्रष्टाचार और समाज की उपेक्षा के खिलाफ एक महायुद्ध का आगाज है।
*सत्ता से सवाल, संवैधानिक सुरक्षा की मांग: अब निर्णायक लड़ाई का वक्त*
अब पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता केवल "लोकतंत्र के चौथे स्तंभ" की भूमिका से संतुष्ट नहीं हैं। उनकी मांग है कि इस स्तंभ को संवैधानिक मान्यता मिले। यह लड़ाई सिर्फ अधिकार की नहीं, बल्कि निर्भीक पत्रकारिता की आजादी की है। जब तक पत्रकारों को संवैधानिक सुरक्षा नहीं मिलेगी, वे पूरी शक्ति से अपना काम नहीं कर पाएंगे। यह महासम्मेलन इस निर्णायक लड़ाई को छेड़ने का रणघोष है।
यह महासम्मेलन सिर्फ पत्रकारों के उत्पीड़न पर चर्चा तक सीमित नहीं है। इसकी जड़ें गहरी हैं और इसका उद्देश्य बड़ा है।
इस महासम्मेलन के पीछे की राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने पत्रकारों को चुनाव लड़ने का न्योता देकर एक सियासी दांव चला है, जिसे अब इन संगठनों का समर्थन मिल रहा है। समाजवादी पार्टी के एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने भी विधान परिषद में पत्रकारों के हितों की जोरदार वकालत की है, और उनका भारतीय मीडिया फाउंडेशन की टीम द्वारा जोरदार स्वागत किया गया था इससे यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि गठबंधन की नींव को मजबूत करता है।
*राजनीतिक गठबंधन से इनकार, पर समर्थन का स्वागत: आंदोलन की बढ़ती ताकत*
इस महासम्मेलन के राजनीतिक पहलुओं पर फाउंडेशन के संस्थापक ए.के. बिंदुसार का रुख साफ है। उन्होंने राजनीतिक गठबंधन से साफ इनकार किया है। उनका कहना है, "हम पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अगर कोई राजनीतिक पार्टी सदन में हमारे मुद्दे को उठाएगी तो हम उनका जरूर स्वागत करेंगे।" यह बयान स्पष्ट करता है कि यह आंदोलन किसी एक पार्टी का मोहताज नहीं, बल्कि अपने मुद्दों की ताकत पर आगे बढ़ रहा है। उनका यह भी कहना है कि यूनियन की बढ़ती ताकत से कुछ लोगों को बेचैनी हो रही है, जो इस आंदोलन को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह आंदोलन अपनी धुरी पर अडिग है।
*भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग और राष्ट्रव्यापी विस्तार*
ए.के. बिंदुसार की मांगें केवल पत्रकारिता तक सीमित नहीं हैं। नागरिक पत्रकारिता, मीडिया कल्याण बोर्ड, पत्रकार सुरक्षा कानून, और विधान परिषद में पत्रकारों के लिए कोटा की मांगें, मीडिया पलका की स्थापना, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता सुरक्षा पेंशन लागू करने, मीडिया को संवैधानिक दर्जा देने, पूरे समाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की कोशिश हैं। यह महासम्मेलन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत जंग का ऐलान है, जिसमें हर नागरिक को हिस्सेदारी दिख रही है।
इस आंदोलन की ताकत सिर्फ यूपी तक सीमित नहीं है। भारतीय मीडिया फाउंडेशन का विस्तार जम्मू-कश्मीर से लेकर ओडिशा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तक हो चुका है। सोशल मीडिया पर भी देश के कोने-कोने से पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता एकजुट होकर अपनी आवाज उठा रहे हैं। यह एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले रहा है, जो अपनी मांगों को मनवाकर ही दम लेगा।
*क्या वाकई आएगी 'महाक्रांति'?*
यह महासम्मेलन यूपी की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत है। अब सवाल यह है कि क्या यह 'महाक्रांति' अपने लक्ष्य तक पहुंचेगी? क्या यह सिर्फ एक सियासी बयानबाजी बनकर रह जाएगी या फिर वाकई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनका हक दिला पाएगी? यह आंदोलन सिर्फ सत्ता में भागीदारी नहीं, बल्कि व्यवस्था में बदलाव की लड़ाई है। इसका भविष्य क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
रिपोर्ट धर्मेंद्र कुमार