अयोध्या/मिल्कीपुर तहसील से जुड़ा एक मामला इन दिनों प्रशासनिक और न्यायिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। न्यायिक तहसीलदार मिल्कीपुर रंजन वर्मा द्वारा पारित आदेश, उपजिलाधिकारी मिल्कीपुर की रिपोर्ट और पीड़ित विधवा महिला द्वारा जिलाधिकारी अयोध्या को दिया गया प्रार्थना पत्र — इन तीनों दस्तावेज़ों ने मिलकर एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है: क्या एक विधवा महिला को वास्तव में न्याय मिलेगा?
पीड़ित महिला का आरोप है कि उसके पति की मृत्यु के बाद वह सभी वैध दस्तावेज़ों के बावजूद अपने अधिकारों से वंचित कर दी गई। परिवार रजिस्टर, आधार कार्ड, निर्वाचन कार्ड, पेंशन से जुड़े अभिलेख और न्यायालय में लंबित मामलों में स्वयं को पत्नी के रूप में दर्ज किए जाने के बावजूद, न्यायिक तहसीलदार द्वारा पारित आदेश ने उसकी स्थिति को और जटिल बना दिया।
महिला ने जिलाधिकारी अयोध्या को दिए गये प्रार्थना पत्र में स्पष्ट रूप से कहा है कि आदेश पारित करते समय तथ्यों की समुचित जांच नहीं की गई, न ही प्रस्तुत साक्ष्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन हुआ। उसका कहना है कि यह आदेश न केवल उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है, बल्कि एक विधवा महिला के सामाजिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
वहीं, उपजिलाधिकारी मिल्कीपुर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में मामले के तथ्यों का उल्लेख तो किया गया है, लेकिन पीड़िता का आरोप है कि रिपोर्ट में जमीनी सच्चाई और उसके पक्ष के महत्वपूर्ण बिंदुओं को दरकिनार कर दिया गया। यही कारण है कि अब पूरा मामला उप जिलाधिकारी स्तर पर लंबित है और पीड़ित महिला न्याय की आस लगाए बैठी है।
यह मामला केवल एक महिला का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आईना है जहाँ काग़ज़ों में न्याय और ज़मीनी हकीकत के बीच की खाई साफ दिखाई देती है। सवाल यह भी है कि जब एक विधवा महिला अपने सारे प्रमाणों के साथ दर-दर भटकने को मजबूर हो, तो आम नागरिक का भरोसा कानून पर कैसे कायम रह पाएगा?
अब निगाहें जिलाधिकारी अयोध्या पर टिकी हैं। क्या वे न्यायिक तहसीलदार के आदेश और उपजिलाधिकारी की रिपोर्ट की निष्पक्ष समीक्षा कर पीड़िता को राहत देंगे, या यह मामला भी फाइलों में दबकर रह जाएगा?
सवाल वही है — क्या विधवा महिला को मिलेगा न्याय, या फिर व्यवस्था की चुप्पी उसके हक़ को निगल जाएगी?
