छठ महिमा: सूर्य आराधना, मातृभक्ति और लोकआस्था का दिव्य संगम

बृज बिहारी दुबे
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लेखक: आलोक कुमार त्रिपाठी
भारत भूमि अपने उत्सवों, परंपराओं और भक्ति भाव से ओतप्रोत है। यहाँ हर पर्व केवल एक दिन का अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता और समाज की एकता का उत्सव है। उन्हीं पवित्र पर्वों में से एक है छठ पूजा, जिसे सूर्य उपासना और षष्ठी देवी की आराधना का सर्वोच्च प्रतीक माना गया है।
यह वह पर्व है, जहाँ न तो दिखावा है, न वैभव का प्रदर्शन — बस मिट्टी, जल, सूर्य और श्रद्धा का अद्भुत संगम है।

जब भोर की पहली किरण गंगा, सोन, कोसी या किसी पोखरे के जल पर झिलमिलाती है, जब मिट्टी के घाट पर लाखों दीपक टिमटिमाते हैं, जब महिलाओं के गले में मंगलगीतों की गूंज उठती है — तब समझिए कि छठ मइया उतर आई हैं अपने भक्तों के बीच।



 छठ पूजा का अर्थ और भावना

‘छठ’ का अर्थ है षष्ठी तिथि — यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष की छठी तिथि। इस दिन सूर्य की उपासना की जाती है।
‘छठ मइया’ को सूर्यदेव की बहन कहा गया है। वह संतान की रक्षा करती हैं, घर-परिवार में सुख, समृद्धि और दीर्घायु का वरदान देती हैं।

छठ पूजा केवल सूर्य को अर्घ्य देने का अनुष्ठान नहीं, यह माँ और प्रकृति के बीच के पवित्र संवाद का पर्व है।
जब एक व्रती स्त्री बिना जल पिए, उपवास में रहकर अस्ताचलगामी और उदयाचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती है — तब वह अपने आत्मबल से प्रकृति के साथ एकाकार होती है।



 छठ पूजा का ऐतिहासिक आरंभ — पहली बार व्रत किसने किया

छठ पूजा का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितनी यह धरती। वेदों और पुराणों में सूर्य उपासना के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
किंतु छठ व्रत की शुरुआत की सबसे प्रसिद्ध कथा पांडवों की पत्नी द्रौपदी से जुड़ी है।

 द्रौपदी और छठ का प्रथम व्रत

महाभारत काल में जब पांडव वनवास में थे, तो उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा। द्रौपदी अपने पतियों की रक्षा के लिए चिंतित रहती थीं।
तभी एक दिन महर्षि लोमश आए और उन्होंने द्रौपदी को बताया —
“हे सती! यदि तुम सूर्यदेव की आराधना करो, तो तुम्हारे सभी कष्ट दूर होंगे। सूर्यदेव संतानों, आरोग्य और समृद्धि के दाता हैं। उनकी छठी शक्ति षष्ठी देवी के व्रत से सब मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।”

तब द्रौपदी ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन कठोर व्रत रखा। उन्होंने नदी में स्नान किया, सूर्यदेव को अर्घ्य दिया और पूरी श्रद्धा से प्रार्थना की।
कहा जाता है कि उसी व्रत के प्रभाव से पांडवों को पुनः राज्य मिला और उनके जीवन के दुःख समाप्त हुए।
यह वही दिन था — जब पहली बार छठ व्रत का प्रादुर्भाव हुआ।




 छठी मइया की पौराणिक कथा

छठ मइया को देवी षष्ठी कहा जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार वह सूर्यदेव की मानस पुत्री हैं और संतानों की रक्षिका हैं।
कहते हैं जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, तब उन्होंने आदेश दिया कि हर जीव के जन्म की रक्षा के लिए एक देवी हों। उसी आदेश से षष्ठी देवी प्रकट हुईं।

एक कथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत के कोई संतान नहीं थी। उन्होंने भगवान ब्रह्मा से प्रार्थना की। ब्रह्मा ने कहा कि वे षष्ठी देवी की पूजा करें।
राजा और रानी ने पूरे मन से व्रत रखा। देवी प्रसन्न हुईं और उन्हें पुत्ररत्न प्राप्त हुआ। तभी से यह व्रत संतान-सुख और परिवार-सौभाग्य का प्रतीक माना जाने लगा।




 व्रत की विधि और उसका वैज्ञानिक स्वरूप

छठ व्रत चार दिनों तक चलता है, और हर चरण का अपना वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है।

🌸 पहला दिन – नहाय खाय

इस दिन व्रती (प्रायः महिलाएँ, पर पुरुष भी कर सकते हैं) स्नान करके शुद्ध भोजन बनाती हैं।
वे घर में मिट्टी के चूल्हे पर अरवा चावल, लौकी की सब्जी और शुद्ध घी से बना प्रसाद ग्रहण करती हैं।
यह शरीर की शुद्धि और उपवास की तैयारी का प्रतीक है।

 दूसरा दिन – खरना

इस दिन पूरा दिन उपवास रखा जाता है। संध्या को सूर्यास्त के बाद गुड़ और दूध से बनी खीर, रोटी और फल का प्रसाद बनता है।
व्रती पहले सूर्य को अर्घ्य देकर यह प्रसाद ग्रहण करती है, फिर परिवार और पड़ोसियों में बाँटती है।
यह “साझेदारी और पवित्रता” का प्रतीक है।

 तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य

इस दिन व्रती और परिवार के लोग नदी, तालाब या घाट पर जाते हैं।
सूर्यास्त के समय सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है। दीपक जलाए जाते हैं, लोकगीत गाए जाते हैं —
“कांचा ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए…”
घाटों पर वह दृश्य ऐसा होता है मानो धरती पर स्वयं देवलोक उतर आया हो।

 चौथा दिन – उदयमान सूर्य को अर्घ्य

यह सबसे पवित्र क्षण होता है।
भोर की लालिमा में जब सूर्य उगने लगता है, तब व्रती जल में खड़ी होकर अर्घ्य देती है —
“ऊग हे सूरज देव भइली अरघ के बेरिया…”
वह अपने परिवार, समाज और सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण की कामना करती है।
इसके बाद व्रत का पारण होता है।



 छठ के लोकगीत और भावनात्मक स्वर

छठ पूजा केवल अनुष्ठान नहीं — यह संगीत, संस्कृति और लोककला का भी उत्सव है।
बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में गाए जाने वाले छठ गीतों में मातृत्व, प्रेम और श्रद्धा का अमृत झरता है।

कुछ लोकगीत जैसे —
“केलवा जे फरेला घवद से ओह पे चढ़ी भइनी…”
या
“छठी मईया आवेली अंगना में…”
इन गीतों में स्त्रियों का भावनात्मक संसार बसता है। वे अपने बच्चों के स्वास्थ्य, पति की दीर्घायु और परिवार की समृद्धि के लिए मइया से याचना करती हैं।

यहाँ गीत केवल स्वर नहीं, भावनाओं के दीपक हैं।



 छठ पूजा की सामाजिक और पारिवारिक एकता

छठ का सबसे अद्भुत पक्ष है — इसका सामूहिक स्वरूप।
यह पर्व जाति, वर्ग, धर्म और अमीरी-गरीबी की सीमाएँ मिटा देता है।
घाट पर अमीर और गरीब एक ही मिट्टी पर खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं।
लोग एक-दूसरे के प्रसाद में हाथ जोड़ते हैं, बच्चे टोकरी लेकर गीत गाते हैं, और पूरा समाज एक परिवार बन जाता है।

छठ में न कोई मूर्ति है, न मंदिर की दीवारें — बस आकाश, जल और मिट्टी।
यही इसकी सबसे बड़ी आध्यात्मिकता है।



 सूर्य उपासना का वैज्ञानिक महत्व

सूर्यदेव को “प्राणदाता” कहा गया है —
क्योंकि वे ही जीवन के ऊर्जा स्रोत हैं।
छठ व्रत में प्रातःकालीन और सायंकालीन सूर्य की किरणों के संपर्क से शरीर में विटामिन डी का निर्माण होता है, रक्त शुद्ध होता है, और मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

उपवास से शरीर डिटॉक्स होता है। नदी में स्नान और मिट्टी के संपर्क से प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है।
इस प्रकार यह व्रत न केवल धार्मिक है बल्कि पूर्णतः वैज्ञानिक और स्वास्थ्यवर्धक भी है।



 छठ और मातृशक्ति का प्रतिरूप

भारतीय संस्कृति में माँ को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है।
छठ में वही मातृशक्ति संतान के लिए उपवास करती है —
वह सूर्यदेव को पुकारती है, जल में खड़ी रहती है, शरीर की सारी थकान को भक्ति में भूल जाती है।

जब उसकी आँखें सूर्य की किरणों से मिलती हैं, तब उसकी आत्मा सूर्य जैसी उज्ज्वल हो जाती है।
वह कहती है —
“हे छठी मइया, मेरे घर में सुख-शांति रहे, मेरे बच्चे स्वस्थ रहें, मेरे परिवार पर तेरा आशीर्वाद बना रहे।”

यह माँ का परम त्याग है, जो किसी भी देवता की आराधना से कम नहीं।



 छठ के सांस्कृतिक स्वरूप और लोककला में योगदान

छठ पूजा बिहार की आत्मा है, पूर्वांचल की पहचान है, और भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।
इस पर्व से लोककला, मिट्टी के दीपक, बाँस की डलिया, सूप, और पारंपरिक वेशभूषा सब जीवंत हो उठते हैं।

घरों की दीवारों पर रंगोली बनती है, चौका-घरों में सुगंध फैलती है।
यह पर्व नारी-सशक्तिकरण का भी प्रतीक है — क्योंकि यहाँ स्त्री ही मुख्य साधक है।



 विदेशों में छठ — भारतीय संस्कृति का वैश्विक विस्तार

आज छठ पूजा केवल बिहार या उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं।
अमेरिका, कनाडा, दुबई, लंदन, ऑस्ट्रेलिया — हर जगह भारतीय प्रवासी बड़े उत्साह से छठ मनाते हैं।
वे वहाँ तालाब न होने पर कृत्रिम जलाशय बनाते हैं, सूर्य को अर्घ्य देते हैं और गीत गाते हैं।
यह देखना भावुक कर देता है कि हजारों मील दूर भी भारत की मिट्टी की खुशबू उनके मन में बसी है।



 छठ के दौरान दिखने वाली भावनात्मक झलकियाँ

घाटों पर बच्चे दौड़ते हैं, पुरुष सूप सजाते हैं, महिलाएँ गीत गाती हैं।
कहीं माँ अपनी गोद में बच्चा लेकर सूर्य को प्रणाम कर रही है, तो कहीं वृद्धा अपनी झुकी कमर के साथ जल में खड़ी है।
किसी के होंठ सूख रहे हैं, पर चेहरे पर अद्भुत तेज है।

यह दृश्य बताता है —
भक्ति में शरीर की सीमा नहीं, केवल आत्मा की असीमता है।




 छठ मइया का वरदान और श्रद्धा की विजय

कहते हैं, जो भी मन से छठ मइया का व्रत करता है, उसकी हर इच्छा पूर्ण होती है।
माँ षष्ठी अपनी संतान की रक्षा करती हैं, विपत्ति से बचाती हैं, और परिवार में समृद्धि बरसाती हैं।

कितनी ही स्त्रियाँ हैं जिन्होंने वर्षों तक व्रत किया और उनके घर में संतान का सुख मिला।
कितने ही परिवार हैं जिन्होंने कठिन समय में मइया से प्रार्थना की और चमत्कार देखे।
यह केवल आस्था नहीं — यह विश्वास का जीवंत प्रमाण है।



 छठ में निहित दार्शनिक संदेश

छठ हमें यह सिखाता है कि —
प्रकृति ही परमात्मा है।
सूर्य की किरणों में वही शक्ति है जो हमारे भीतर जीवन का संचार करती है।
यदि हम प्रकृति की पूजा करेंगे, तो वह हमें आशीर्वाद देगी।

यह पर्व त्याग, संयम, शुद्धता और सामूहिकता का प्रतीक है।
यह हमें सिखाता है कि सच्ची पूजा बाहरी वैभव से नहीं, आंतरिक शुद्धता से होती है।



 छठ पूजा का आधुनिक स्वरूप और बदलता समाज

आज के तेज़ जीवन में भी छठ पूजा ने अपनी पवित्रता नहीं खोई।
तकनीक के युग में भी लोग अपने गाँव लौटते हैं, घाट सजाते हैं, और बचपन की उस मिट्टी को महसूस करते हैं।
सरकारें घाटों को स्वच्छ रखती हैं, समाजसेवी संगठन सहयोग करते हैं, और मीडिया इस उत्सव को राष्ट्रीय पर्व के रूप में दिखाता है।

यह बताता है कि छठ पूजा केवल धर्म नहीं — यह हमारी संस्कृति की आत्मा है।



 कवितामय अनुभूति: छठ की भोर

> जब उगता है सूरज, नदियों के जल में,
तब झिलमिल करती है श्रद्धा की लहर।
मइया के गीतों से गूंजता है आकाश,
मिट्टी में मिल जाती है मन की लहर।

जो माँ जल में खड़ी है ठिठुरती भोर में,
वही सूर्य से कहती है – “मेरे घर उजियारा।”
उसकी थाली में फल, फूल और दीप है,
और आँखों में विश्वास का सितारा।





 निष्कर्ष — छठ: आस्था का अमर आलोक

छठ पूजा केवल एक पर्व नहीं — यह जीवन का उत्सव है।
यह हमें सिखाता है कि जब मन में विश्वास हो, तो असंभव भी संभव हो जाता है।
यह भक्ति हमें हमारे मूल से जोड़ती है, हमारी मिट्टी से, हमारी माँ से, और हमारी प्रकृति से।

छठ मइया की जय,
जिनकी कृपा से सूर्य की किरणें हर घर में उजाला फैलाती हैं।

जो इस व्रत को निभाता है, वह केवल भक्त नहीं, बल्कि जीवन का साधक बन जाता है —
क्योंकि छठ सिखाता है कि —

> “सच्ची पूजा वही है, जहाँ मन निर्मल हो और हृदय प्रकाशमान।”





 अंतिम भाव

छठ पूजा की महिमा इतनी विराट है कि शब्द भी उसकी गहराई को व्यक्त नहीं कर सकते।
यह पर्व है श्रद्धा की साधना, नारी के त्याग, सूर्य की ऊर्जा, और प्रकृति की महिमा का।
यह पर्व भारत के हृदय में सदा जलता रहेगा —
एक दीपक की तरह, जो कभी बुझता नहीं।

> “छठी मइया की जय हो,
सूरज भगवान का प्रकाश अमर रहे,
हर घर में सुख, हर मन में शांति,
और हर आत्मा में आस्था का सूरज चमकता रहे।”





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