विजयदशमी (दशहरा) पर एक सार्वजनिक विचार

बृज बिहारी दुबे
By -
          (लेखक आलोक कुमार त्रिपाठी)
 
 

प्रस्तावना


🌹जय श्री सीताराम 🌹 


भारतीय संस्कृति की पहचान उसकी गहनता, उसकी व्यापकता और उसकी जीवनदर्शी परंपराओं से होती है। यहाँ हर पर्व केवल अनुष्ठान या दिखावा नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शन करने वाला दीपस्तंभ है। इन्हीं में से एक है विजयदशमी, जिसे दशहरा भी कहा जाता है। यह केवल एक पर्व नहीं बल्कि भारतीय मानस की आत्मा है।

यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि “असत्य चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न लगे, अंततः पराजित होगा; सत्य चाहे कितना ही दुर्बल क्यों न प्रतीत हो, अंततः विजयी होगा।”

श्लोक

> सत्यं जयते नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामाः, यत्र तत् सत्यं परमं निधानम्॥



भावार्थ – असत्य नहीं, केवल सत्य की ही विजय होती है। सत्य का मार्ग ही देवताओं का मार्ग है, जिस पर चलकर ऋषि-मुनि परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।



दशहरा का ऐतिहासिक एवं पौराणिक आधार

त्रेतायुग की वह कथा किसे याद नहीं जिसमें रावण जैसा महाबली और विद्वान भी अपने अहंकार और अधर्म के कारण विनाश को प्राप्त हुआ। रावण केवल एक राक्षस नहीं था, वह दस सिरों वाला महाज्ञानी था। उसने वेद-पुराण, संगीत-शास्त्र, आयुर्वेद सबमें पारंगतता प्राप्त की थी। परंतु उसका अहंकार ही उसका सर्वनाश कर गया।

श्रीराम ने केवल रावण का वध नहीं किया, बल्कि यह सिद्ध कर दिया कि धर्म का पक्ष लेने वाला चाहे वनवासी हो, निराश्रित हो, किन्तु उसका बल अपार होता है।



एक छोटी कथा

कहते हैं कि युद्ध के पूर्व जब लक्ष्मण ने रावण से शिक्षा लेने का आग्रह किया, तो श्रीराम ने अनुमति दी। लक्ष्मण ने रावण के पास जाकर जीवन का ज्ञान माँगा। रावण ने कहा—
"हे लक्ष्मण! मैंने जीवन में दो गलतियाँ कीं—पहली यह कि जब मैंने सीता का हरण किया, तभी मुझे यह विचार करना चाहिए था कि इससे धर्म का उल्लंघन होगा। दूसरी गलती यह कि जब विभीषण ने मुझे समझाया, तब भी मैंने अपने अहंकार में उसकी बात नहीं मानी। इन दो गलतियों ने ही मुझे विनाश की ओर धकेल दिया।"

यह कथा बताती है कि विजयदशमी केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि अहंकार और अधर्म के परिणाम का शाश्वत सबक है।



विजयदशमी का दार्शनिक संदेश

यदि हम केवल बाहरी रावण को देखें तो विजयदशमी का संदेश अधूरा रह जाएगा। वास्तविक रावण हमारे भीतर है—

अहंकार,

क्रोध,

लोभ,

मोह,

ईर्ष्या,

द्वेष,

आलस्य,

असत्य,

अन्याय,

और लालच।


ये दस विकार ही हमारे भीतर के दस सिर वाले रावण हैं। जब तक मनुष्य इन्हें नहीं जलाता, तब तक उसका जीवन सफल नहीं होता।

श्लोक

> इन्द्रियाणि जिता येन, जितं सर्वं जगत्त्रयम्।
आत्मविजयी सदा मुक्तो, रावणं हत्वा सुखं लभेत्॥



भावार्थ – जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली, उसने तीनों लोक जीत लिए। वही सच्चा आत्मविजयी है, जिसने अपने भीतर के रावण को मारकर वास्तविक सुख पाया।



एक दूसरी कहानी

एक गाँव में एक बुजुर्ग हर साल दशहरा पर रावण का पुतला बनवाते और जलाते थे। एक दिन उनके पोते ने पूछा—“दादा जी, हर साल रावण को जलाते हो, फिर भी वह अगले साल जीवित कैसे हो जाता है?”

बुजुर्ग मुस्कुराए और बोले—“बेटा, रावण बाहर नहीं है, वह तो हमारे भीतर है। हम हर साल प्रतीकात्मक रूप से उसे जलाते हैं ताकि हमें याद रहे कि अपने अंदर के रावण को भी जलाना है। परंतु जब तक हम अपने भीतर से ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार को पूरी तरह नहीं मिटाएँगे, तब तक रावण जीवित रहेगा।”

यह कथा विजयदशमी के दार्शनिक स्वरूप को सहज भाषा में समझाती है।



सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

भारत में विजयदशमी का उत्सव एकता और उत्साह का पर्व है। हर राज्य में इसे अपने-अपने ढंग से मनाया जाता है—

उत्तर भारत में रामलीला और रावण-दहन,

पश्चिम बंगाल में माँ दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन,

दक्षिण भारत में शस्त्र-पूजन और आयुध-पूजन,

महाराष्ट्र और कर्नाटक में "अपराजिता" के पत्ते बाँटने की परंपरा।


यह सब इस बात का प्रतीक है कि यह पर्व केवल एक कथा तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सांस्कृतिक आत्मा को जोड़ने वाला उत्सव है।



आधुनिक जीवन में दशहरा

आज रावण रूपी बुराइयाँ नए रूप में हमारे सामने हैं—

भ्रष्टाचार,

नशाखोरी,

हिंसा और आतंकवाद,

पर्यावरण का विनाश,

नैतिक मूल्यों का पतन।


विजयदशमी हमें प्रेरित करती है कि हम केवल पुतला जलाने तक न रुकें, बल्कि अपने जीवन और समाज से इन वास्तविक रावणों को भी जलाएँ।


एक तीसरी प्रेरक कहानी

एक विद्यालय में दशहरे पर कार्यक्रम हुआ। सभी बच्चों ने रावण का पुतला जलाया। लेकिन एक छोटे बच्चे ने अपने हाथ में एक कागज़ का पुतला बना रखा था। उसमें उसने लिखा था—“झूठ, ईर्ष्या, क्रोध।”

जब उससे पूछा गया कि यह क्या है तो उसने कहा—“मैं अपने भीतर के रावण को जला रहा हूँ।”

यह सुनकर वहाँ मौजूद सभी लोग भावुक हो गए। वास्तव में यही विजयदशमी का वास्तविक संदेश है।



साहित्य में दशहरा

महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम-रावण युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा—

> धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिअहि चारी॥



रामचरितमानस की यह पंक्ति केवल रावण-वध की कथा नहीं, बल्कि मानव जीवन की कसौटी है। यह दर्शाती है कि दशहरा केवल राम की विजय का उत्सव नहीं, बल्कि हर युग के मनुष्य के लिए जीवन की कसौटी है।



निष्कर्ष

विजयदशमी हमें यह सिखाती है कि –

धर्म की रक्षा करने वाला कभी पराजित नहीं होता।

सत्य की शक्ति असीम है।

अहंकार और अधर्म चाहे कितना भी प्रबल हो, अंततः उसका नाश निश्चित है।

वास्तविक दशहरा तभी होगा जब हम अपने भीतर के रावण को जला देंगे।


श्लोक

> सत्यं शिवं सुन्दरं धर्मो विजयते सदा।
रावणो नष्ट एव हि रामेण जगतः हिते॥



भावार्थ – सत्य, शिव और सुंदर धर्म सदा विजयी होता है। भगवान राम ने रावण का वध कर समस्त संसार का कल्याण किया।



समापन

इस प्रकार विजयदशमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का उत्सव है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रकाश सदा अंधकार को मिटाता है, सत्य सदा असत्य को परास्त करता है और धर्म सदा अधर्म पर विजय पाता है।

यही कारण है कि आज भी लाखों लोग रावण के पुतले जलाते हैं, रामलीला देखते हैं और अपने बच्चों को यह संदेश देते हैं कि –
"बेटा, सच्चाई के मार्ग पर चलो, क्योंकि असत्य का अंत और सत्य की विजय निश्चित है।"


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