प्रकृति के विषय में मेरा एक छोटा सा दृष्टिकोण

बृज बिहारी दुबे
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प्रकृति—यह शब्द केवल हरियाली या पेड़ों का नाम नहीं है। यह हमारे जीवन का आधार है, हमारी संस्कृति की आत्मा है और हमारे अस्तित्व का वास्तविक कारण है। जिस प्रकार बच्चे के बिना माँ का अस्तित्व अधूरा लगता है, उसी प्रकार मनुष्य के बिना प्रकृति का और प्रकृति के बिना मनुष्य का कोई मूल्य नहीं।

हमारे ऋषियों ने सदियों पहले कहा था—
“यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।”
अर्थात्—जो कुछ इस शरीर में है, वही ब्रह्मांड में भी है।
यानी हम प्रकृति के ही अंश हैं।



प्रकृति का स्वरूप

प्रकृति अपनी विविधताओं से भरी हुई है। सुबह की लालिमा, संध्या का सौंदर्य, रात का चाँद और सितारे—ये सब मिलकर जीवन को मधुरता से भर देते हैं।

सागर हमें गहराई का संदेश देता है।

पर्वत हमें दृढ़ता का पाठ पढ़ाते हैं।

नदी हमें निरंतरता का प्रतीक दिखाती है।

आकाश हमें असीमता का अनुभव कराता है।

पेड़-पौधे और फूल हमें सरलता और सुंदरता का एहसास कराते हैं।


प्रकृति केवल दृश्य नहीं, बल्कि एक अनुभूति है, जिसे हम अपने हृदय में महसूस कर सकते हैं।




मनुष्य और प्रकृति का संबंध

मनुष्य प्रकृति का पुत्र है। उसकी हर साँस, हर भोजन, हर अनुभूति प्रकृति से जुड़ी है। खेतों में लहलहाती फसल, बागों में खिले फूल, झरनों का मधुर संगीत और जंगलों की हरियाली—ये सब जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं।

अगर हम ध्यान से देखें, तो हर पल प्रकृति हमें शिक्षा देती है:

वृक्ष अपने फलों को दूसरों को देकर भी झुके रहते हैं—यह हमें विनम्रता सिखाते हैं।

नदियाँ बाधाओं को पार कर आगे बढ़ती हैं—यह हमें संघर्ष और निरंतरता की प्रेरणा देती हैं।

सूर्य रोज़ उगकर हमें परिश्रम और निष्ठा का महत्व समझाता है।



प्रकृति का दोहन और संकट

आज के समय में मनुष्य ने प्रगति की दौड़ में प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है।

नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं।

वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है।

वायु में जहरीले धुएँ का मिश्रण है।

धरती की उर्वरता कम हो रही है।


इसका परिणाम हमें प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिलता है—बाढ़, सूखा, भूकंप, जलवायु परिवर्तन और असमय ऋतुओं का बदलाव।

संस्कृत में कहा गया है—
“प्रकृतिः रक्षिता रक्षति।”
अर्थात्—प्रकृति की रक्षा करने वाला स्वयं सुरक्षित रहता है।



प्रकृति संरक्षण के उपाय

अब समय आ गया है कि हम अपने जीवन में प्रकृति संरक्षण को अपनाएँ।

1. वृक्षारोपण: हर साल अधिक से अधिक पेड़ लगाना।


2. जल संरक्षण: पानी का अनावश्यक दुरुपयोग रोकना।


3. प्रदूषण कम करना: वाहनों और उद्योगों से निकलने वाले धुएँ को नियंत्रित करना।


4. प्लास्टिक का उपयोग कम करना: पुनर्चक्रण को बढ़ावा देना।


5. वन्यजीवों की रक्षा करना: क्योंकि वे प्रकृति का अभिन्न अंग हैं।




प्रेरणादायक दृष्टिकोण

प्रकृति हमें न केवल जीवन देती है, बल्कि आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करती है। यही कारण है कि हमारे संत, महात्मा और ऋषि सदा वन, नदी, पर्वत और आश्रमों में रहकर साधना करते थे। प्रकृति के समीप रहना ही मनुष्य को सच्चा आनंद और आत्मज्ञान प्रदान करता है।



उपसंहार

प्रकृति मानव जीवन की जीवनरेखा है। इसे नष्ट करना, अपने ही अस्तित्व को नष्ट करना है। यदि हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस धरती की सुंदरता का आनंद उठा सकें, तो हमें अभी से प्रकृति की रक्षा करनी होगी।

“प्रकृति का सम्मान ही जीवन का सम्मान है।”



✍️ लेखक – आलोक कुमार त्रिपाठी

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