झारखंड, धनबाद । जो भी दुनिया में आया है, उसे एक दिन छोड़कर हमेशा के लिए जाना ही है। यह जिंदगी का कटु सत्य है, जिसे कोई झूठला नहीं सकता और न ही इससे मुंह फेर सकता है ।
लेकिन, इसी जीवन के सफऱ में कुछ लोगों का साथ छोड़ जाना खल जाता है और उनकी याद सताती है, क्योंकि उनके काम और कर्तव्य हमेशा उनको बड़ा बना देती है।
दिशोम गुरु शिबू सोरेन भी ऐसे ही शख्शियत के मालिक थे ।अचानक 4 अगस्त को सुबह -सुबह खबर मिली की वे अब दुनिया में नहीं रहें । इस दुखद खबर से झारखण्ड में शोक की लहर दौड़ गई और लोग गम के सागर में डूब गए। क्योंकि एक आंदोलनकारी और महानायक की आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गया।
शिबू सोरेन ने ही झारखण्ड आंदोलन की लड़ाई लड़ी और आदिवासियों के हक़ के लिए लड़ते रहें। उस जंगल, जमीन और पहाड़ की हिफाज़त के लिए चार दशक तक संघर्ष किया, कई बार मौत की परछाई को भी करीब से देखी. लेकिन हक़ के लिए संघर्ष से न कभी पीछे हटे और न ही डिगे.
रामगढ़ के नेमरा गांव में 11 जनवरी 1944 को यानि देश की आजादी के तीन साल पहले शिबू सोरेन का जन्म हुआ था। देश तो आजाद हो गया था, लेकिन महाजन, सूदखोरो और समांती सोच से समाज आजाद नहीं हुआ था। आदिवासी समाज इससे काफ़ी पीड़ित और परेशान था। उनकी जमीनों पर जबरन कब्ज़ा, मनमाना सूद और जुल्म की इंतेहा अपने उफान पर थी।
शिबू सोरेन 13 साल के थे तब ही उनके पिता सोबरन मांझी की हत्या कर दी गई ।इतनी छोटी सी उम्र में ही उनकी जिंदगी ने कड़ा इम्तिहान लिया और एक मकसद में तब्दील हो गया। उनकी जिंदगी ही बदल गई और एक संकल्प के साथ एक लड़ाई आदिवासियों,मुलवासियों,दलितों और पिछडो के हक़ के लिए छेड़ दी।इसके लिए लंबे समय तक जंगल और पहाड़ ही उनका आशियाना और ठिकाना रहा।
खासकर धन कटनी आंदोलन महाजनों के खिलाफ काफ़ी सुर्खियां बटोरा और एक नई पहचान दी। 1969 में उनकी छवि एक आंदोलनकारी और समाज सुधारक के तौर पर हर जगह होने लगी थी और लोगों का भरोसा भी जमने लगा था।इस दरमियान तरह तरह के झंझटो को भी झेला। लेकिन कभी भी हारे नहीं बल्कि हर चुनौतियों का मुकाबला उन्होंने किया।
शिबू सोरेन को अहसास हो गया था कि लोकतंत्र में राजनीतिक के सहारे ही अपनी मांगो को रखा जा सकता है और लोगों की आवाज उठाई जा सकती है। इसलिए उन्होंने 1973 में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का गठन ऐ के रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ किया।
आज यहीं जे एम एम की सरकार है और शिबू सोरेन के मंझले बेटे हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री है।
शिबू ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1977 में टुंडी विधानसभा से चुनाव लड़कर की थी। लेकिन सियासत की पहली सीढ़ी चढ़ने में ही चुनावी हार का सामना करना पड़ा।
इसके बाद संताल परगना के दुमका में अपनी राजनीतिक कर्मभूमि और 1980 में पहली बार लोकसभा चुनाव जीतकर दिल्ली पहुंचे। इस शानदार जीत के बाद सियासत के शह -मात के खेल में फिर पीछे मुड़कर नहीं देखे। दुमका लोकासभा से आठ बार सांसद रहें। इसके साथ ही तीन बार झारखण्ड के मुख्यमंत्री भी बने। वह तीन बार राजयसभा के लिए भी चुने गए। वर्तमान में भी शिबू सोरेन राज्य सभा से ही सांसद थे.
वह 2004 से 2006 के बीच केंद्र में कोयला मंत्री भी थे।
जल जंगल और जमीन से घिरे प्रदेश झारखण्ड को शिबू सोरेन ने काफ़ी करीब से जाना और यहां के आदिवासी समुदाय के पिछड़ेपन और दर्द को समझा और उनकी आवाज को बुलंद की। अलग झारखण्ड राज्य के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी ही गुजार दी।
उनके 81 साल की लंबी उम्र के बाद 4 अगस्त 2025 को आखिरी सांस लेने के बाद राजनीति के एक युग का अंत हो गया।लेकिन, सच्चाई यहीं है कि युगपुरुष दिलों में रहकर हमेशा अमर ही रहते हैं l
रिपोर्ट प्रेम प्रकाश शर्मा